Allama Iqbal Shayari
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने
मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका
दियार-इ-इश्क़ में अपना मक़ाम पैदा कर ,
नया ज़माना नई सुबह-ओ-शाम पैदा कर।
नशा पिला के गीराना तो सब को आता है,
मज़ा तो जब है के गिरतों को थाम ले साकी!!
Sitaaaron se Aage Jahan Aur Bhi Hain
Abhi Ishq ke Imtihan Aur bhi hai.
Nahi Tera naseman kasre sulltaanik
Gummbad par tu Saahi hai
basera kar pahadoo ki chattanoo par.
Achchha Hai Dil Ke Saath
Rahe Pasban E Aqbal
Lekin Kabhi Kabhi Isse
Tanha Bhi Chhod De.
तिरे इश्क़ की ”इंतिहा” चाहता हूँ
मिरी ”सादगी” देख क्या चाहता हूँ
ये जन्नत “मुबारक” रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ
ढूँडता ”फिरता” हूँ मैं ‘इक़बाल’ अपने आप को
आप ही गोया “मुसाफ़िर” आप ही मंज़िल हूँ मैं
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख
फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का,
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है..!!
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं,
तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन..!!
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़ इ ज़िंदगी,
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन..!!