खुद को खोने का पता तक न चला
किस को पाने मैं तनहा गुजर गए
हजारो महफिले हैं और लाखों मेले हैं,
लेकिन जहाँ तुम नही,
वहाँ हम बिलकुल अकेले हैं।
मैं जो सोता हूँ तो जाग उठती है किस्मत मेरी।

अब अपने गाँव में अमरुद पक रहे होंगे
भुलादे मुझको मगर,
मेरी उंगलियों के निशान
तेरे बदन पे अभी तक चमक रहे होंगे
हाथ जब उससे मिलाना तो दबा भी देना
मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर, मगर हद से गुजर जाने का नईं
सितारें नोच कर ले जाऊँगा, मैं खाली हाथ घर जाने का नईं ,
वबा फैली हुई है हर तरफ, अभी माहौल मर जाने का नईं
वो गर्दन नापता है नाप ले, मगर जालिम से डर जाने का नईं।।
– Rahat Indori